Saturday, 4 January 2014

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 04 January 2014 
(पौष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
व्यर्थ-चिन्तन और उसका दुष्परिणाम – 1

ईश्वरवादी हों, तो महाराज माफ करेंगे, अनीश्वरवादी हों, वे भी माफ करेंगे । भौतिकवादी भले ही हों, अध्यात्मवादी भले ही हों । सुख का भोगी दुःख से बचेगा नहीं, बचेगा नहीं । यह प्रभु का मंगलमय विधान है । तो मेरा चिन्तन क्या है ? आप जानते हैं, क्या है ? पहली बात, जैसा मैंने निवेदन की, कि आप प्राप्त का आदरपूर्वक स्वागत नहीं करते । एक और सूक्ष्म बात है, इससे भी सूक्ष्म, और वह है कि आप प्राप्त में प्रियता नहीं रखते । बड़ी सूक्ष्म बात है । नित्य उसे कहना चाहिये, जो नित्य प्राप्त है । और परिस्थिति उसे कहते हैं, जो मिली हुई है । मिले हुये का आदरपूर्वक स्वागत नहीं करते और नित्य प्राप्त में आत्मीयता नहीं करते, नित्य प्राप्त आपको प्यारा नहीं लगता । तो, जिसे नित्य प्राप्त प्यारा नहीं लगता, उसमें व्यर्थ का चिन्तन नहीं होगा, तो क्या होगा ? आपको नित्य प्राप्त क्या है? ईश्वरवादी को ईश्वर नित्य प्राप्त है, आत्मवादी को आत्मा नित्य प्राप्त है । शान्ति के पुजारी को शान्ति नित्य प्राप्त है । स्वाधीनता नित्य प्राप्त है, नित-नूतन रस नित्य प्राप्त है । किन्तु नित्य प्राप्त में आपकी प्रियता नहीं है, आत्मीयता नहीं है। मिले हुये का आप स्वागत नहीं करते । फिर आप व्यर्थ चिन्तन से बच नहीं सकते।

और आप जानते हैं कि बचने का क्या अर्थ होता है ? जो न कर सके, उसको तो करने की सोचे, और जो कर सके, उससे जान बचाये । क्या बतायें महाराज ! धन होता, तो दान दे देते । हमने कहा, भले आदमी, उसमें से कितना दे दिया जो पास में है ? जो है, उसमें से कितना दे दिया ? यह भी व्यर्थ-चिन्तन का हेतु है । जो कर सकेंगे, उसे करेंगे नहीं और जो नहीं कर सकेंगे, उसको करने की सोचते रहेंगे । तो यह व्यर्थ-चिन्तन प्राकृतिक दोष नहीं है । दोस्त ! बहुत गम्भीरता से सोचना । यह भूल-जनित है और सार्थक-चिन्तक, यह उपार्जित नहीं है, यह दैवी देन है । आप सार्थक चिन्तन को पुरुषार्थ के आधार पर प्राप्त करना चाहते हैं और व्यर्थ-चिन्तन को प्राकृतिक दोष मानकर उससे छुटकारा पाना चाहते हैं । नहीं पा सकते । यह बात, भैया मैं अपने विचार के आधार पर कहता हूँ । अगर आप पा सकते होते, तो मुझसे भी अकेले में बात कर लें । अगर मेरी भूल होगी, तो मैं आपकी बात मान लूँगा । परन्तु मेरे जानते, कोई भी भाई, कोई भी बहिन बलपूर्वक सार्थक-चिन्तन नहीं कर सकते, बलपूर्वक व्यर्थ-चिन्तन नहीं मिटा सकते ।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 96-97)