Sunday 26 January 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 26 January 2013 
(माघ कृष्ण दशमींवि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

विवेक का आदर जीवन का आदर है । बल का सदुपयोग जीवन का सदुपयोग है । विवेक के आदर के बिना हम कभी अपने जीवन का आदर नहीं कर सकते और बल का सदुपयोग किये बिना हम कभी अपने जीवन का सदुपयोग  नहीं कर सकते। अथवा यों कहें कि विवेक का आदर और वल का सदुपयोग ही वास्तव में जीवन है। इससे भिन्न को जीवन नहीं कह सकतेमृत्यु कह सकते हैं । जब हमें जीवन प्राप्त करना हैतो बल के दुरूपयोग का कोई स्थान नहीं हैविवेक के अनादर का कोई स्थान नहीं है । यदि बल का दुरुपयोग न होतो बुराई जैसी चीज देखने में नहीं आती और विवेक का अनादर न होतो बेसमझी का कहीं दर्शन नहीं होता। बेसमझी वहीं हैजहाँ विवेक का अनादर है । बुराई वहीं हैजहाँ बल का दुरुपयोग है । इस बात को मान लेने के बाद हम और आप एक ऐसे जीवन की ओर अग्रसर होने लगते हैंजो वास्तव में जीवन हैअर्थात् जिसमें किसी प्रकार का भय नहीं हैअभाव नहीं है । भय का अन्त और अभाव का अभाव करने में साधन-युक्त जीवन ही समर्थ है और साधन का सार है - बल का सदुपयोग और विवेक का आदर ।

अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि विवेक का आदर करने में कठिनाई क्या हैकठिनाई यह है कि हम मनइन्द्रिय आदि के व्यापार को ही जीवन मान लेते हैं। यदि हम विवेक-पूर्वक मनइन्द्रिय आदि के व्यापार से अपने को असंग कर लेंअथवा उसमें जीवन-बुद्धि न रखेंतो बहुत ही सुगमतापूर्वक विवेक का आदर कर सकते हैं ।

यदि हम यह जानना चाहें कि हमारा समस्य जीवनअर्थात् मनइन्द्रिय आदि का व्यापार विवेक के प्रकाश से प्रकाशित है अथवा नहीं । तो उसकी कसौटी यह होगी कि हम मनइन्द्रिय आदि से उत्पन्न हुई प्रवृत्तियों को देखें कि क्या वे ही प्रवृत्तियाँ दूसरों के द्वारा अपने प्रति होने पर हमें उन प्रवृत्तियों में अपना हित तथा अपनी प्रियता प्रतीत होती है यदि नहीं होतीतो जान लेना चाहिए कि अभी मनइन्द्रिय आदि में अविवेक का अन्धकार विद्यमान है और उसे विवेक के प्रकाश से सदा के लिए मिटाना है ।

अविवेक का अन्धकार हमें इन्द्रियों के व्यापार में आबद्ध करता है। इन्द्रियों का व्यापार हमें विषयों में आसक्त करता है । विषयों की आसक्ति हमारे देहाभिमान को पुष्ट करती है और देहाभिमान हमें अमरत्व से मृत्यु की ओर ले जाता है । अत: यदि हम मृत्यु से अमरत्व की ओर जाना चाहते हैंतो विवेकपूर्वक देहाभिमान का अन्त करना होगा । देहाभिमान का अन्त करने के लिए इन्द्रियों के व्यापार द्वारा जो सुख मिलता हैचित्त के चिन्तन द्वारा जो सुख मिलता हैस्थिरता द्वारा जो सुख मिलता हैइन सुखों की आसक्ति का त्याग करना होगा। ये तीन प्रकार के सुख देहाभिमान के आधार पर ही भोगे जा सकते हैं ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि सुखलोलुपता जब तक जीवन में रहेगीतब तक देहाभिमान का अन्त न हो सकेगा । और ज्यों-ज्यों सुख-लोलुपता मिटती जायेगी अथवा जीवन  की लालसा जागृत होती जायगीत्यों-त्यों देहाभिमान अपने आप मिटता जाएगा । सुख-लोलुपता ने ही हमें देहाभिमान  में आबद्ध किया है।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँगपुस्तक से, (Page No. 65-67)