Monday, 18 November 2013
(मार्घशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता
कोई भी प्राणी तबतक उन्नति नहीं कर सकता, जबतक उसे स्वयं अपनी दृष्टि से अपनी कमी का अनुभव न हो। विचारशील प्राणी कमी का अनुभव कर उसका नितान्त अन्त करने के लिए घोर प्रयत्न करते हैं । अतः हमको अपनी कमी का अन्त करने के लिए अखण्ड प्रयत्न करना चाहिए ।
हम कब तक दुखी होते रहते हैं ? जबतक हम किसी को भी अपने से सबल, स्वतन्त्र तथा श्रेष्ठ पाते हैं । अतः हमारी पूर्ण स्वतन्त्र, सबल तथा श्रेष्ठ होने की स्वभाविक अभिलाषा है । जो स्वतन्त्र है, वही सबल तथा श्रेष्ठ है । यह नियम है कि 'क्रिया से भिन्न कर्ता का स्वरूप कुछ नहीं होता ।' जैसे, देखने की क्रिया से भिन्न नेत्र कुछ नहीं है । अभिलाषा क्रिया है । अतः जो हमारी अभिलाषा है, वही हमारा स्वरूप है । इस दृष्टि से यह सिद्धान्त निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि हम पूर्ण स्वतन्त्र, सबल तथा श्रेष्ठ हो सकते हैं, क्योंकि अपने को अपने स्वरूप से कोई भी भिन्न नहीं कर सकता । अतएव स्वभाविक अभिलाषा का पूर्ण होना अनिवार्य है ।
क्या हमारी स्वभाविक अभिलाषा की पूर्ति के लिए यह संसार, जो प्रतीत होता है, समर्थ है ? यदि बेचारा संसार समर्थ होता, तो क्या हम इसके होते हुए भी निर्बलता एवं परतन्त्रता आदि बन्धनों में बँधें रहते ? कदापि नहीं । हमको परतन्त्रता, निर्बलता आदि बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए केवल अपनी ओर देखना होगा । हम उसी दोष का अन्त कर सकते हैं, जो हमारा बनाया हुआ है; क्योंकि किसी और की बनाई हुई वस्तु को कोई और नहीं मिटा सकता है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 11-12) ।