Friday 27 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 27 September 2013  
(आश्विन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        अब आप लोग यह प्रश्न कर सकते हैं कि यदि पर-दोष दर्शन न करें, तो माता-पिता बालकों का, गुरुजन शिष्यों का, राष्ट्र प्रजा का सुधार कैसे करें ? क्योंकि इनमें अपने दोष देखने की सामर्थ्य है ही नहीं । परन्तु, यह सन्देह निर्मूल है। जो जिस अवस्था में होता है, वह उस अवस्था के दोषों को भी जानता है; क्योंकि प्राकृतिक नियमानुसार मनुष्य-मात्र को अपने दोष देखने का विवेक स्वत: प्राप्त है । बालक बालकपन के दोष अवश्य देख लेगा, युवक युवावस्था के दोष अवश्य देख  लेगा, विद्यार्थी विद्यार्थी-अवस्था के दोष अवश्य देख लेगा, विद्वान् विद्वत्ता के दोष अवश्य देख लेगा; महाजन और मजदूर भी अपनी-अपनी अवस्था के दोष अवश्य देख लेंगे ।

        कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी-अपनी परिस्थितियों में अपने-अपने दोषों का दर्शन सभी को सम्भव है । आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं । आवश्यकता इस बात की है कि हमारे द्वारा हमारे साथी के प्रति कोई दोषयुक्त व्यवहार न हो। इस बात की आवश्यकता नहीं कि हम अपने विवेक से अपने साथी के दोष देखें । आप कहेंगे कि इस सिद्धान्त के अनुसार तो आपने गुरुजनों, नेताओं और सुधारकों का काम ही समाप्त कर दिया । नेता का काम है कि वह समाज को दोष-दर्शन कराये और उसके मिटाने का उपाय बताये । गुरु का काम भी यही है कि वह अपने शिष्य के दोष-दर्शन कराये और उसे दोष मिटाने का उपाय बताये, जिससे शिष्य दोष-मुक्त हो जाय । 

        शासक भी यही सोचते हैं कि जिन पर वे शासन करते हैं, उनके दोष-दर्शन करायें और बल के द्वारा उनको निर्दोष बनाने का प्रयत्न करें । शासक, नेता और गुरु में थोड़ा-थोड़ा भेद है। शासक बल के द्वारा, नेता विधान के द्वारा और गुरु ज्ञान के द्वारा  सुधार करने का प्रयास करते हैं । यह अन्तर होते हुए भी तीनों ही सुधारने का दावा करते हैं । परन्तु भैया, मानवता तो एक  अनूठी प्रेरणा देती है और वह यह कि हमें नेता होना है, तो अपने ही नेता बनें, यदि हमें शासन करना है, तो अपने पर ही शासन करें, और यदि गुरु बनने की कामना है, तो अपने ही गुरु बनें। 

        मानवता के इस दृष्टिकोण को जब हम अपनायेंगे, तो हम अपने को ही अपना शिष्य, और अपने जीवन को ही अपना समाज और अपने चरित्र को ही अपनी प्रजा बना लेंगे । यह नियम है कि जो अपना गुरु बन जाता है, अपना नेता बन जाता है, और अपना शासक हो जाता है, वह सभी का गुरु, शासक और नेता बन जाता है । उसका जीवन ही विधान बन जाता है, जिसकी समाज को माँग है।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 26-28) ।