Thursday, 26 September 2013
(आश्विन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण
वास्तव में हमें निष्पक्ष भाव से धैर्यपूर्वक अपने साथी के विवेक का पता लगाना चाहिए और सोचना चाहिए कि जो कुछ उसने किया है, क्या उसका विवेक भी वही कहता है ? यदि उसका कर्म उसके विवेक के विरुद्ध सिद्ध हो जाये, तो भी हम यही कहें कि भाई कोई बात नहीं, भूल हो ही जाती है; परन्तु हम और तुम साथ हैं । ऐसा करने से उसे अपने प्रमाद का ज्ञान हो जाएगा और वह उसे त्याग देगा । यह नियम है कि प्रमाद अपने ही ज्ञान से मिटता है, किसी दूसरे के ज्ञान से नहीं । इस प्रकार सुविधापूर्वक संघर्ष मिट जाएगा और हमारी और हमारे साथी की एकता सुरक्षित हो जायगी तथा भेद की खाई मिट जावेगी । यदि यह प्रयोग नहीं किया गया और अपने विवेक पर ही यह मान लिया गया कि उसका दोष अवश्य है, तो हमारे और हमारे साथी के बीच एकता कभी नहीं होगी; न आपस में प्रेम का ही उदय होगा ।
हमारे और हमारे साथी के हृदय में प्रेम उदय हो और हमारा साथी निर्दोष हो जाय, इसके लिए अत्यन्त आवश्यक है कि हम अपने साथी के विवेक से ही उसको उसके अपने प्रमाद का बोध कराने का प्रयत्न करें; अपने विवेक द्वारा अपने साथी के प्रमाद का उसे बोध कराने का प्रयत्न न करें । अपने विवेक द्वारा तो हम केवल अपने ही प्रमाद को मिटाने का प्रयास करें । जब हम अपने विवेक द्वारा अपने प्रमाद को मिटायेंगे, तभी हम निर्दोष होंगे और हमारा साथी भी हमें निर्दोष मान लेगा । यह बड़े महत्व की बात है ।
आज हम दूसरों के सर्टिफिकेट पर, अर्थात् दूसरों के आधार पर अपना महत्व आँक लेते हैं और यह समझ लेते हैं कि हम सचमुच ही वैसे बन गये, जैसे कि लोग हमें कहते हैं । परन्तु हमारी यह मान्यता किसी भी समय हमारे निर्बलतापूर्ण चित्र को समाज के सामने प्रकाशित कर देगी । हमें दूसरों की दी हुई महानता से सन्तोष नहीं करना चाहिये, प्रत्युत अपनी दृष्टि में अपने को निर्दोष तथा महान बनाने का अथक प्रयत्न करना चाहिए । यह नियम है कि हम जैसे अपनी दृष्टि में हैं वैसे ही हम जगत् तथा नियन्ता की दृष्टि में हो जायेंगे । कारण कि, जो बात हम अपने से नहीं छिपा सकते, वह दूसरों से भी नहीं छिपा सकते। हमारी असली दशा के प्रकट होने में कुछ समय अवश्य लग सकता है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 25-26) ।