Friday, 30 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 30 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        जिस प्रकार 3/4 को, यदि 75/100 कर दिया जाये, तो साधारण दृष्टि से तो अंकों में वृद्धि प्रतीत होती है, किन्तु मूल्य उतना ही रहता है, उसी प्रकार बेचारे विषयी की पीड़ा उत्तरोत्तर उत्कृष्ट परिस्थिति आने पर भी बनी ही रहती है। इस दृष्टि से यह भली प्रकार सिद्ध हो जाता है कि सभी परिस्थितियाँ यन्त्रवत् साधन तो हो सकती हैं, किन्तु प्राणी का जीवन नहीं हो सकतीं । जो प्राणी परिस्थिति को यन्त्र न मानकर जीवन मान लेते हैं, वे बेचारे परिस्थिति का अभिमान धारण कर, अपने हृदय को दीनता तथा अभिमान की अग्नि में दग्ध करते रहते हैं; इसी कारण परिस्थिति के सदुपयोग की अपेक्षा परिस्थिति के परिवर्तन का प्रयत्न करते रहते हैं ।  विधान के अनुरूप मिली हुई परिस्थिति का सदुपयोग, परिस्थिति-परिवर्तन करने और परिस्थिति से अतीत आस्तिकता प्राप्त कराने में समर्थ है, क्यौंकि जो 'है' वह सभी को सभी काल में मिल सकता है। उसके लिए किसी परिस्थिति विशेष की दासता की आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत् वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग कर परिस्थिति के अभिमान से मुक्त होना है । परिस्थिति के अभिमान से मुक्त होते ही, साधक अपने को सभी परिस्थितियों से अतीत पाता है और फिर अपने को सभी परिस्थितियों में तथा सभी परिस्थितियों को अपने में देखता है । यही प्राणी की स्वाभाविक आवश्यकता है । अत: उससे कभी निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि आवश्यकता वही होती है, जिसकी पूर्ति परम अनिवार्य है।

        साधारण प्राणी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, संस्था, जाति, देश, समाज आदि स्वीकृतियों को जीवन मान लेते हैं । वास्तव में वे सब परिस्थितियाँ हैं । अपने-अपने स्थान पर सभी अनुकूल हैं। अत: प्रत्येक प्राणी को अपने-अपने स्थान पर सुन्दर अभिनय का पात्र होना चाहिए, किन्तु उसमें जीवन-बुद्धि लेशमात्र भी न हो, क्योंकि कोई भी अभिनयकर्ता (Actor) अभिनय (Acting) को जीवन नहीं जानता । अभिनय तो केवल छिपे हुए राग की निवृत्ति के लिए साधनमात्र है अर्थात् यों कहो कि राग-निवृत्ति की औषधि है । अभिनयकर्त्ता अभिनय-परिवर्तन की इच्छा या रुचि नहीं करता, प्रत्युत् मिले हुए पार्ट को भली प्रकार कर, अपने अभीष्ट को पाता है । अभिनय में महत्ता पार्ट की नहीं होती, उसको सुन्दरतापूर्वक यथेष्ट करने की होती है । इस दृष्टि से भी परिस्थितियाँ समान अर्थ रखती हैं ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 49-50) ।