Thursday 29 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 29 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        सभी परिस्थितियों का बाह्य-स्वरूप वस्तु और अवस्था के रूप में होता है, किन्तु परिस्थिति फलस्वरूप से सुख तथा दुःख के रूप में सामने आती है । विषयी प्राणी परिस्थिति का भोग करता है । भक्त तथा जिज्ञासु परिस्थिति को साधन मानते हैं, साध्य नहीं । अर्थात् विषयी का जो साध्य है, भक्त तथा जिज्ञासु का वही साधन है । यद्यपि साधक को साधन में अत्यन्त प्रियता होती है, परन्तु साध्य की अपेक्षा साधन साधक की दृष्टि में अधिक महत्ता नहीं रखता । इतना ही नहीं, साध्य के आते ही साधक साधन-सहित अपने को साध्य के प्रति समर्पण कर देता है । विषयी प्राणी सुख-रूप परिस्थिति का भोग कर, परिस्थिति का दास हो जाता है और दुःख-रूप परिस्थिति से भयभीत हो अधीर हो जाता है । परन्तु भक्त तथा जिज्ञासु सुख-रूप परिस्थिति का भोग नहीं करते, प्रत्युत् सुख को दुखियों की वस्तु समझ कर, दुखियों को बाँट देते हैं और दुःख रूप परिस्थिति से त्याग का पाठ पढ़ कर अपने को दुःख के भय से बचा लेते हैं । इस कारण परिस्थिति भक्त तथा जिज्ञासु की दास हो जाती है । अत: भक्त तथा जिज्ञासु पर परिस्थिति का शासन नहीं होता और न भक्त तथा जिज्ञासु परिस्थिति पर शासन करते हैं, प्रत्युत् प्यार करते हैं ।

        प्रत्येक प्राणी को विधान के अनुरूप उन्नति की ओर जाना है। अत: अनुकूल तथा प्रतिकूल अर्थात् सुखमय तथा दुःखमय प्रत्येक परिस्थिति में उन्नति के लिए स्थान है; किन्तु परिस्थिति के द्वारा मिले हुए ज्ञान के अनुरूप जीवन न होने के कारण अवनति होती है । विषयी प्राणी भी तभी उन्नति करता है, जब वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग कर, उससे उत्कृष्ट परिस्थिति की इच्छा करता है । अर्थात् विषयी प्राणी को भी वर्तमान परिस्थिति में त्याग को अपनाना ही पड़ता है । किन्तु उस त्याग का जन्म किसी प्रकार के राग से होता है; इस कारण विषयी का त्याग परिस्थिति के स्वरूप में ही पुन: सामने आ जाता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 48-49) ।