Sunday 29 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 29 April 2012
(वैशाख शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०६९, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी के साथ बुराई न करना

        परिवर्तनशील परिस्थिति मानव का जीवन नहीं हो सकती; कारण, कि जीवन अविनाशी है, विनाशी नहीं। अविनाशी जीवन की उपलब्द्धि किसी परिस्थिति विशेष से सम्बन्ध नहीं रखती । इसी कारण सभी परिस्थितियों में साधक को जीवन की उपलब्धि हो सकती है। इस दृष्टि से साधक का अपना मूल्य प्रत्येक परिस्थिति से अधिक है । पर यह रहस्य तभी स्पष्ट होता है, जब साधक को कर्तव्य-विज्ञान का बोध होता है ।

        यह सभी को मान्य है कि जबतक भूल-रहित होने की तीव्र माँग जाग्रत नहीं होती, तबतक निज-विवेक के प्रकाश में अपनी भूल देखना सम्भव नहीं होता, अर्थात अपने द्वारा अपनी भूल का ज्ञान नहीं होता । भूल के ज्ञान में ही भूल का नाश है । यह मंगलमय विधान है ।

       कर्तव्यनिष्ठ जीवन से दूसरों में अपनी-अपनी भूल देखने की माँग जाग्रत हो जाती है । कर्तव्य-निष्ठ मानव किसी को भयभीत नहीं करता, अपितु भय-रहित होने के लिए सहयोग प्रदान करता है । किसी को भयभीत करने से उसका कल्याण नहीं होता, अपितु किसी-न-किसी अंश में अहित ही होता है । भय देकर कोई भी राष्ट्र अपनी प्रजा को निर्दोष नहीं बना सका, यह अनुभव-सिद्ध सत्य है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 27-28) ।