Saturday 28 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 28 April 2012
(वैशाख शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी के साथ बुराई न करना

       अब विचार यह करना है कि कोई भी व्यक्ति बुराई क्यों करता है ? कर्म कर्ता का चित्र है और कुछ नहीं, अर्थात् कर्ता में से कर्म की उत्पत्ति होती है। जबतक मानव भूल से अपने को बुरा नहीं बना लेता, तबतक उससे बुराई नहीं होती । बुराई तभी कम हो सकती है, जब कर्ता बुरा न रहे । बुराई के बदले में बुराई करने से उत्तरोत्तर बुराई की वृद्धि होती है । उससे बुराई की निवृति नहीं होती । अतएव बुराई के बदले में भी बुराई न करना बुराई मिटाने में हेतु है ।

       इस दृष्टि से सर्वप्रथम प्रत्येक मानव को अपने को साधक स्वीकार करना अनिवार्य है । फिर अपने और जगत् के सम्बन्ध पर विचार करना चाहिए, तभी कर्तव्य-विज्ञान का भलीभाँती परिचय होगा, जिसके होने पर कर्तव्यपरायणता आएगी, जो जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध होगी । 

        कर्तव्यपरायणता प्राप्त परिस्थिति से सम्बन्ध रखती है। इसी कारण उसको पालन करने में मानव सर्वदा स्वाधीन तथा समर्थ है । परन्तु अपने को साधक स्वीकार किए बिना परिस्थिति में जीवन-बुद्धि उत्पन्न होती है, जिसके होने से मानव परिस्थितियों का दास हो जाता है और फिर प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग नहीं कर पाता और अप्राप्त परिस्थितियों के चिन्तन में आबद्ध हो जाता है, जो विनाश का मूल है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 26-27) ।