Tuesday 24 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 24 April 2012
(वैशाख शुक्ल अक्षयतृतीया, वि.सं.-२०६९, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

       अब विचार यह करना है कि व्यक्ति तथा समाज में से असमर्थता का नाश कैसे हो? सर्वहितकारी सद्भावना तथा प्राप्त सामर्थ्य के सदुपयोग से ही असमर्थता मिट सकती है। सामर्थ्य के सदुपयोग से उत्तरोत्तर सामर्थ्य की वृद्धि होती है, यह प्राकृतिक विधान है ।

        सामर्थ्य का दुरूपयोग न करें, इसके लिए यह आवश्यक है कि साधक किसी को बुरा न समझे । दूसरों को बुरा समझने मात्र से ही क्षोभ तथा क्रोध उत्पन्न होता है, जो सामर्थ्य का सदुपयोग नहीं करने देते । इस कारण बड़ी ही सजगतापूर्वक दूसरों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्णय करना चाहिए ।

       असमर्थता का भूल मानव की अपनी भूल है और कुछ नहीं। भूल-रहित करने के लिए साधक को स्वयं भूल-रहित होना अनिवार्य है । अपनी भूल से ही मानव आप पराधीनता में जीवन-बुद्धि स्वीकार करता है और जन्मजात स्वाधीनता से विमुख हो जाता है । 

        जिसमें पराधीनता नहीं रहती, वह असमर्थ नहीं रहता, और जो असमर्थ नहीं रहता, वह मिली हुई सामर्थ्य का दुरूपयोग नहीं करता । इस दृष्टि से पराधीनता का सर्वांश में नाश करना अनिवार्य है, जो एकमात्र सत्संग से प्राप्त साधन-निधि से ही सम्भव है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 33) ।