Monday 23 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 23 April 2012
(वैशाख शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

         अधिकतर तो सुनकर, अथवा अनुमानमात्र से ही दूसरों को बुरा समझ लिया जाता है । इतना ही नहीं, इन्द्रिय दृष्टि से किसी की वास्तविकता का बोध ही नहीं होता । अधूरी जानकारी के आधार पर किसी को दोषी मान लेना, उसके प्रति अन्याय और अपने में बुराई को जन्म देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । पर यह रहस्य वे ही साधक जान पाते हैं, जिन्होंने सभी के प्रति सद्भावना तथा आत्मीयता स्वीकार की है ।

        समस्त दोषों का मूल मानव की अपनी असमर्थता है और कुछ नहीं । असमर्थता जीवन में तब आती है, जब मानव अपने लक्ष्य को भूलता है । लक्ष्य की विस्मृति से ही मिली हुई सामर्थ्य का दुरूपयोग करता है और उसके परिणाम में स्वयं असमर्थ हो जाता है ।

        सामर्थ्य के दुरूपयोग से ही समाज में दोषों की उत्पत्ति होती है । सामर्थ्य का सदुपयोग असमर्थ की असमर्थता मिटाने में है, किसी को असमर्थ बनाने में नहीं । पर इस वास्तविकता को भूल जाने से सामर्थ्य का दुरूपयोग रोकने के लिए मिली हुई सामर्थ्य द्वारा उसे असमर्थ बनाते हैं । उसका परिणाम कभी भी हितकर नहीं होता ।

        थोड़ी देर के लिए ऐसा प्रतीत होने लगता है कि बलपूर्वक सामर्थ्य का दुरूपयोग रोक दिया, पर वास्तव में ऐसा होता नहीं। सामर्थ्य के दुरूपयोग से सभी में असमर्थता की ही वृद्धि होती है और उसकी प्रतिक्रिया सामर्थ्य का दुरूपयोग करने के लिए ही प्रेरित करती है । अतः सामर्थ्य का उपयोग असमर्थता के मिटाने में है, किसी को असमर्थ  बनाने में नहीं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 32-33) ।