Wednesday 11 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 11 April 2012
(वैशाख कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        भोग की माँग जिसमें है, उसमें प्रेम की माँग नहीं हो सकती । योग की माँग जिसमें है, उसमें प्रेम की माँग नहीं हो सकती । ज्ञान की माँग जिसमें है, उसमें प्रेम की माँग नहीं हो सकती । क्योंकि भाई, योग की माँग चिरशान्ति प्रदान करती है, ज्ञान की माँग अमर बनाती है । तो जिसे अमर होना है, जिसे चिरशान्ति में निवास करना है तो बताइये वह प्रेमी कैसे हो सकता है ?

       क्या इसका अर्थ यह है कि प्रेमी भोगी होता है ? नहीं भाई भोगी नहीं होता, होता तो परम योगी है, पर वह योग के रस में आसक्त नहीं होता । क्या प्रेमी अज्ञानी होता है ? अज्ञानी नहीं होता, वह महान तत्वज्ञ होता है परन्तु वह ज्ञान के रस में आबद्ध नहीं होता ।

        तो आप कहेंगे कि योग का रस, ज्ञान का रस और प्रेम का रस - इसमें अन्तर क्या है ? भाई, योग का जो रस होता है वह शान्त रस है । ज्ञान का जो रस है वह अखण्ड रस है और प्रेम का जो रस है, वह शान्त भी है, अखण्ड भी है और अनन्त भी है । तो भाई, प्रेम का रस अनन्त रस है । प्रेम के रस में, योग के रस में, ज्ञान के  रस में स्वरूप से भेद नहीं है, जाती का भेद नहीं है, लेकिन सीमा का भेद है ।

        प्रेम का जो रस है, वह असीम और अनन्त है, ज्ञान का रस असीम और अखण्ड है और योग का जो रस है, वह असीम और शान्त है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 58) ।