Tuesday 10 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 10 April 2012
(वैशाख कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६९, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

आप विचार करें, बहुत गम्भीरता से विचार करें कि जब आपको अपने प्रिय की स्मृति आती है अथवा आप जब यह सुनते हैं कि हमारा प्रेमास्पद हमारा प्रेमी हमारा स्मरण करता है, तो अपनी स्मृति की बात सुन करके आपके-हमारे हृदय में एक रस की वृद्धि होती है । यह बात प्रत्येक भाई को माननी पड़ेगी, प्रत्येक बहन को माननी पड़ेगी कि  जब वह यह सुनता है कि कोई हमारा प्यारा है और जब उसकी याद आती है तो उससे बड़ा रस आता है ।

तो भाई, जो समर्थ प्रेमास्पद है, जब उसकी स्मृति हमारे जीवन में रहेगी तब बताइये, उसे रस मिलेगा या नहीं ? कि जो समर्थ है, उसको रस कब मिलता है ? जब उसकी मधुर स्मृति अखण्ड रूप से बनी रहे । और उसे रस कब मिलता है ? जब उसके मन की बात पूरी हो । अब उसके मन में अच्छी बात है या बुरी बात है, इस बात का विचार प्रेमी में कभी नहीं होता है । 

प्रेमी के जीवन में तो केवल यही बात रहती है कि भाई, प्रेमास्पद के मन में जो हो, सो हो, लेकिन एक बात आप ध्यान रखिए कि प्रेमास्पद हो कौन सकता है? प्रेम का रस कौन चख सकता है ? प्रेम का रस भोगी नहीं चख सकता । भोगी प्रेमास्पद नहीं हो सकता । क्यों ? जो कुछ भी चाहता है, उसको प्रेम नहीं चाहिए। प्रेम उसी को चाहिए जो भोग के रस की लालसा से रहित हो। और जो भोग की लालसा से रहित है, वह व्यक्ति नहीं हो सकता  इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है, कि जो अनन्त है, जो अपार है, जो अखण्ड है, जो सभी का सबकुछ है, सच पूछिए तो वही प्रेमास्पद है।

यह तो दूसरी बात है कि उसी के नाते सभी की सेवा की जाए, सभी का आदर किया जाय, सभी को प्रेम किया जाय । लेकिन प्रेमास्पद कौन है ? कि भाई, प्रेमास्पद तो वही न होगा कि प्रेम जिसकी खुराक हो, प्रेम जिसकी माँग हो, कि जिसकी माँग में भोग की लालसा न हो ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 57-58) ।