Sunday 19 January 2014

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 19 January 2014  
(पौष कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति

        जो अप्रयत्न जीवन है उसकी चर्चा करें, तो कोई विशेषता नहीं आ जाती और न करें तो कोई क्षति नहीं हो जाती । इसलिये अचाह तक तो सब विचारकों का एक मत है और उसके पश्चात् जो अप्रयत्न जीवन है, उसमें अपना-अपना दृष्टिकोण है । कोई मुक्ति के पश्चात् भक्ति मानता है और कोई मुक्ति के पश्चात् मौन हो जाता है । किन्तु मुक्ति तक तो सभी साथ हैं ।

        अब प्रश्न यह है कि जब अचाह-पद ही मुक्ति-पद है, तो अचाह-पद की प्राप्ति हमें कैसे हो ? उसके लिये अभी निवेदन किया कि अपने जाने हुए ज्ञान का आप अनादर न करें । और आप यह जानते हैं कि सब परिस्थितियों में आप एक हैं, सब परिस्थितियों में आप अपरिवर्तनशील हैं । तो अपने अपरिवर्तनशील जीवन को इस परिवर्तनशील जीवन में मिलाकर न देखें, अलग करके अनुभव करें । और उसका अनुभव कल पर न छोड़ें, भविष्य पर न छोड़ें, वर्तमान में करें । वर्तमान उसको कहते हैं, जिसके लिये लेशमात्र भी भविष्य अपेक्षित न हो ।

        एक और गहरी बात है कि वर्तमान में जिसका अनुभव होगा, उसके लिये कोई भी प्रयत्न अपेक्षित नहीं होगा । यह बड़ी रहस्य भरी बात है और इसमें बहुत से लोग उलझ जाते हैं। उलझन यह होती है कि प्रयत्न तो उत्पन्न होता है अहम् भाव से और अनुभव होता है, अहम् मिटने से । बोध 'तत्व' है और अहम् 'कृति' है । ज्ञान कृति-रहित है । जो कृति-रहित है, उसे कृति से नहीं प्राप्त कर सकते । कहा यह जाता है कि वर्तमान में अनुभव करें, पर यहाँ 'करें' का अर्थ यत्नसूचक नहीं है । अनुभव के लिये अप्रयत्न ही प्रयत्न है । अप्रयत्न होते ही अहम् मिटने लगता है; गुणों का आश्रय छूटने लगता है । ऐसी दशा में कभी-कभी साधक घबराकर पुन: अहम् के द्वारा प्रयत्न करके अपने परिस्थिति-जन्य मोह को सुरक्षित रखने लग जाता है, जो वास्तव में प्रमाद है । अत: साधक बड़ी सावधानी से अपने उस जीवन का कि जिसमें परिवर्तन न हुआ है और न होगा, अनुभव किसी कृति द्वारा न करें, प्रयत्न द्वारा न करें, किन्तु अप्रयत्न होकर ही करें। 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 53-54) ।