Saturday, 09 November 2013
(कार्तिक शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन
कर्तृत्व के स्थल पर एक बात और विचारणीय है, वह यह कि हम जो कुछ करते हैं, उसका परिणाम हमीं तक सिमित नहीं रहता, अपितु समस्त विश्व में फैलता है; क्योंकि कर्म बिना संगठन के नहीं होता । अतः संगठन से उत्पन्न होनेवाले कर्म का परिणाम व्यापक होना स्वाभाविक है । इस दृष्टि से हम जो कुछ करें, वह इस उद्देश्य को सामने रखकर करना चाहिए कि हमारे द्वारा दूसरों का अहित तो नहीं हो रहा है ।
यदि हमारे द्वारा होने वाले कर्मों से दूसरों का अहित हो रहा है, तो हमारा भी अहित निश्चित है; क्योंकि दूसरों के प्रति जो कुछ किया जाता है, वह कई गुना अधिक होकर हमारे प्रति स्वतः होने लगता है । अतः इस कर्म-विज्ञान की दृष्टि से हमें वह नहीं करना चाहिए, जिसमें किसी अन्य का अहित हो, अपितु वह अवश्य करना चाहिए, जिसमें सभी का हित हो ।
अब यदि कोई यह पूछे कि हम यह कैसे जानें कि किसमें दुसरे का अहित है ? तो इसका निर्णय करने के लिए हमें एक ही बात पर ध्यान देना चाहिए कि हम जो कुछ दूसरों के प्रति कर रहे हैं, क्या वही दूसरों के द्वारा अपने प्रति किये जाने की आशा करते हैं ? दूसरों के द्वारा अपने प्रति हम वही आशा करते हैं, जो करने योग्य है; क्योंकि हम अपने प्रति दूसरों से न्याय, प्रेम, उदारता, आदर, करुणा एवं क्षमा आदि व्यवहार की ही आशा रखते हैं । जो अपने प्रति चाहते हैं, वही हमें दूसरों के प्रति करना है । ऐसा करने से 'करना', 'होने' में विलीन हो जाता है । फिर हम, जो हो रहा है, उसे देखने लगते हैं ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 20-21) ।