Monday 21 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 21 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

आप विचार कीजिये, जिसे हम बुराई कहते हैं, क्या उसका ज्ञान हमें नहीं है ?  यदि बुराई का ज्ञान न होता, तो हम दूसरों से अपनी भलाई की आशा क्यों करते ? भलाई की आशा यह सिद्ध करती है कि हमें भलाई और बुराई का भली-भाँति ज्ञान है । अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरु का बहाना ढूँढना भी निज-विवेक का अनादर ही है। अब रही भगवान् की बात, सो आप विचार करके देखें कि क्या वह भी भगवान् हो सकता है, जो कृपा न करे ? यदि भगवान् कृपा न करते तो क्या हमें मानव-जीवन मिलता ? मानव-जीवन मिलना ही उनकी हम पर अहैतुकी कृपा है। पर उसका अनुभव उन्हीं को होता है, जो उनके दिये हुए बल का सदुपयोग और विवेक का आदर करते हैं ।

मानव-जीवन साधन-युक्त जीवन है । अत: हमें अपना साधन-निर्माण न करने में केवल अपनी ही भूल माननी चाहिए । इस दृष्टिकोण को अपना लेने पर हमें किसी और से कुछ भी कहने का साहस नहीं होता और अपनी ओर ही देखना पड़ता है । हम अपनी ही भूल से प्राप्त बल का दुरुपयोग तथा विवेक का अनादर करते हैं । जाने हुए की भूल को ही भूल कहते हैं । भूल उसे नहीं कहते जिसे नहीं जानते, जैसे, कोई अपनी घड़ी जेब में रखकर भूल गया है; जब घड़ी की जरूरत हुई, तब उसे मासूम होता है, कि न जाने घड़ी कहाँ हैं ? किन्तु जेब की वस्तु-स्थिति जैसी-की-तैसी रहती है, उस भूल-काल में भी और मिलने पर भी। मिलने पर वह कहने लगता है, भाई ! घड़ी तो जेब में ही थी ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि भूले उसे कहते हैं, जिसे जानते हैं । किन्तु जानते हुए भी, न जानने जैसी स्थिति हो गई हो । जानते हुए न जानने जैसी स्थिति का नाम ही वास्तव में भूल है । वह भूल कब तक जीवित रहती है ? जब तक हम अपने विवेक का उपयोग अपने पर नहीं करते । जब हम विवेक का उपयोग अपने पर करने लगते हैं और अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति विवेक के प्रकाश में ही करते हैं, तब भूल अपने-आप मिट जाती है । भूल मिटाने का अर्थ है - विवेक का आदर और भूल बनाये रखने का अर्थ है - विवेक का अनादर । इस दृष्टि से प्रत्येक भाई-बहिन अपनी भूल को अपने विवेक से मिटा सकते हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 63-65)