Saturday 19 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 19 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

मेरे निजस्वरूप उपस्थित महानुभाव!

कल आपकी सेवा में निवेदन किया था कि अचाह पद प्राप्त होने पर अथवा सर्वहितकारी प्रवृत्ति को अपना लेने पर हम अपने को साधन-तत्व से अभिन्न कर सकते हैं । साधन-तत्व से अभिन्न होने पर ही साध्य की उपलब्धि हो सकती है, ऐसा नियम है ।

अब विचार यह करना है कि अचाह-पद प्राप्त करने हेतु सर्वहितकारी प्रवृत्ति सुरक्षित रखने के लिये हमें क्या करना है ? गम्भीरता से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि हम प्राप्त बल का दुरुपयोग न करें और अपने विवेक का अनादर न करें, तो बड़ी ही सुगमता से अचाह-पद प्राप्त कर सकते हैं और सर्वहितकारी प्रवृत्ति को भी सुरक्षित रख सकते हैं । बल का सदुपयोग और विवेक का आदर अत्यन्त आवश्यक साधन हैं । हमारे जीवन में जितनी भी दुर्बलताएँ हैं, उनका मूल कारण एक मात्र प्राप्त बल का दुरुपयोग है, और जितनी बेसमझी है, उसका मूल कारण एक-मात्र विवेक का अनादर है ।
  
यदि हमें सभी निर्बलताओं का अन्त करना है, तो बल का सदुपयोग करना होगा और बेसमझी दूर करनी है, तो विवेक का आदर करना होगा । दोष-युक्त प्रवृत्ति बल के दुरूपयोग करने वाले से ही होती है, निर्बल से नहीं । कारण कि, निर्बल तो उसे कहते हैं जो कुछ कर न सके । दोष-युक्त प्रवृत्ति उससे भी नहीं होती, जो कुछ नहीं जानता । दोष-युक्त प्रवृत्ति उससे होती है, जो निज-ज्ञान का अनादर करता है । इस दृष्टि से हमारे जीवन में जितने भी दोष हैं, उनका एक-मात्र कारण है - विवेक का अनादर तथा बल का दुरुपयोग । बल के दुरुपयोग से केवल हम ही निर्बल नहीं होते, अपितु सारे समाज में निर्बलता फैलती है और विवेक के अनादर से हममें ही बेसमझी नहीं आती, बल्कि सारे समाज में बेसमझी फैलती है । अत: बहुत ही सावधानीपूर्वक हमें बल का सदुपयोग करना है और विवेक का आदर ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 61-62)