Tuesday, 15 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 15 October 2013  
(आश्विन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति

        यदि कोई कहे कि अनुभव करना और अप्रयत्न होना, ये दो विरोधी बातें हैं ? तो अप्रयत्न होना और अनुभव करना इनमें विरोध नहीं है । अनुभव करना लक्ष्य है, अप्रयत्न साधन है । यह नियम है कि साधन पूर्ण होने पर साध्य से अभिन्न हो जाता है । अत: अप्रयत्न होने पर लक्ष्य से स्वतः अभिन्नता हो जाती है । 

        अप्रयत्न होने के लिये अन्तः-बाह्य मौन होना अनिवार्य है। अथवा यों कहो कि अन्तः-बाह्य मौन ही अप्रयत्न है । अन्त-बाह्य मौन एक ऐसा सुगम, स्वाभाविक और समर्थ साधन है कि जिसके सिद्ध होने पर सबल-से-सबल और निर्बल-से-निर्बल सभी साधक समान हो जाते हैं । बोलने में भेद है, पर न बोलने में कोई भेद नहीं । देखने में भेद है, न देखने में कोई  भेद नहीं । सुनने में भेद है, न सुनने में, कोई भेद नहीं । गति में भेद है, गति-रहित होने में कोई भेद नहीं । सोचने-समझने में तथा चिंतन में भेद है, पर उनके न होने में कोई भेद नहीं है । जिस साधन में सभी साधन विलीन हो जाते हैं, उसी को अन्तिम साधन मानना होगा।  इस अन्तिम साधन में सभी साधक एक हैं । किन्तु यह साधन किस प्रकार होगा ? हमें न देखने के लिये सही देखना होगा, न बोलने के लिए सही बोलना होगा, न सुनने के लिये सही सुनना होगा, न सोचने के लिये, सही सोचना होगा । 

        इसी का नाम है, जो करना चाहिए, उसको करना । यह नियम है कि जो करना चाहिए उसके करने से, न करना स्वत: आ जाता है और फिर उससे उपर्युक्त साधन की सिद्धि हो जाती है। यदि कोई कहे कि बिना सही किये हम ‘न करना'  प्राप्त कर लेंगे? तो यह कभी सम्भव नहीं है । कारण कि, करने का राग सही करने से ही निवृत्ति होता है । सही करने का अर्थ है जिस प्रवृत्ति से जिनका सम्बन्ध है, उनके अधिकार की रक्षा । जैसे, हम वही बोलें, जिससे सुनने वाले का हित तथा प्रसन्नता हो और अगर हम वैसा न बोल सकें, तो बोलने के राग से रहित होकर मौन हो जायें।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 54-55) ।