Wednesday 18 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 18 April 2012
(वैशाख कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        तो भाई, यह तो प्रेम का साम्राज्य है । प्रेम के साम्राज्य में नित नव-रस है, अगाध अनन्त रस है । यह रहस्य कब समझ में आता है ? जब प्रेम के साम्राज्य में प्रवेश हो । तो प्रेम के साम्राज्य में कब प्रवेश होता है ? जब साधक प्रेमास्पद के अस्तित्व को निस्संदेहतापूर्वक स्वीकार कर ले। यही प्रेम के साम्राज्य में प्रवेश होने का उपाय है । हमारे प्रेमास्पद हैं और वे हमारे अपने ही हैं ।

        अब आप सोचिए, प्रार्थना का जो सबसे पहला वाक्य है, उसमें यही है - "मेरे नाथ" । मेरे नाथ का अर्थ क्या है ? कोई और मेरा नहीं है, मैं अनाथ नहीं हूँ । न तो मैं अनाथ हूँ और न कोई मेरा है । भाई, यह तन भी मेरा नहीं है, यह मन भी मेरा नहीं है, यह प्राण भी मेरे नहीं हैं । यह सब कुछ तेरा है और तू केवल मेरा है । यही प्रेम प्राप्ति का सुगम उपाय है ।

        जब कोई अपना है ही नहीं, तो आप विचार करें किसी व्यक्ति से सम्बन्ध रहेगा । लेकिन क्या वस्तु नहीं रहेगी ? तो यह मानना पड़ेगा कि वस्तु रहेगी, उससे सम्बन्ध नहीं रहेगा। वस्तु रहे और उससे सम्बन्ध न रहे, तो क्या हो जाएगा ? कि वस्तु के सम्बन्ध से जो लोभ, मोह, काम आदि जो विकार उत्पन्न हो गया था, वह विकार नाश हो जाएगा ।

        कहने का तात्पर्य मेरा यह था  कि भाई, अब हमारा सम्बन्ध अपने प्रेमास्पद से हो गया, किसी और से नहीं रहा ।

- 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 60)।