Saturday 7 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 07 April 2012
(वैशाख कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        यह नियम है, कि प्रेमी के जीवन में जब कोई समस्या आती है, तो प्रेमियों की ओर दौड़ता है । तो नारद बाबा ने सोचा, कि चलो भाई, ब्रज में चलें । तो ब्रज में नारद बाबा आए । नारद बाबा ब्रज में गए तो वहाँ देखते हैं कि वहाँ तो सब प्रेम-मूर्छा में बेहोस हैं । तो उन्होंने प्रिय का नाम लेना शुरू कर दिया - श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ, नारायण वासुदेव । तो प्रिय के नाम की भनक गोपियों के कानों में पड़ी, तो उनमें चेतना आ गई । तो जब चेतना आई, तो उन्होंने देखा कि सामने नारद बाबा खड़े हैं ।

        यह भी नियम ही है कि प्रेमी जब किसी प्रेमी को देखता है, तो बड़ी प्रसन्नता होती है । तो प्रसन्न होकर कहने लगीं - बाबा दण्डौत, बाबा दण्डौत । कहाँ से आ रहे हैं आप ? नारद बाबा कहने लगे कि आए कहाँ से हैं, आए तो हम द्वारकापुरी से हैं । तो जब प्रिय के धाम की बात सुनी, तो और चेतना हुई । तो गोपियाँ पूछने लगीं कि प्यारे अच्छे तो हैं । अच्छे तो हैं, पर..! जब गोपियों ने यह संदेहास्पद सुनी, तो गोपियाँ कहने लगीं, बाबा, पर-पर क्या कहते हो ? बाबा, बताओ हमारे प्यारे अच्छे तो हैं ? 

        नारद बाबा बोले कि अच्छे तो हैं पर उनके सिर में पीड़ा हो रही है, तो गोपियाँ व्याकुल हो गईं । कहने लगीं कि, क्या द्वारकापुरी में कोई उपचार करनेवाला नहीं है ? तो नारद बाबा बोले कि उपचार करनेवाला तो है, पर औषधि नाय मिलै । तो ऐसी कौन सी औषधि है जो नाय मिलै । आप बताओ तो सही। क्या बताएँ औषधि तो मिलै नाय । वे पूछने लगीं कि बाबा, बताओ तो सही, ऐसी कौन सी औषधि है ? वे सोच नहीं सकती थीं ।

        तब नारद बाबा बोले कि औषधि तो यह है कि कोई उनका प्रेमी अपने चरण की रज दे दे, तो उनके सिर की पीड़ा दूर होगी। तो वे बोलीं - बाबा, ले जाओ, ले जाओ । जितनी रज चाहिए शीघ्र ले जाओ । नारद बाबा कहने लगे कि गोपियों, क्या तुम यह नहीं जानती हो कि श्यामसुन्दर सच्चिदानन्दघन हैं । तुम उनके मस्तक पर अपनी चरण-रज लगाओगी, तो तुम्हें नरक भोगना पड़ेगा । तो वे बोलीं, बाबा, एक जन्म में नहीं हम अनन्त जन्मों तक नरक भोग सकती हैं, पर प्यारे के सिर की पीड़ा नहीं सह सकतीं । तो कहने का तात्पर्य क्या निकला ? यह है पवित्र प्रेम

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 55-56) ।