Wednesday 21 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 21 March 2012
(चैत्र कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
      
(गत ब्लागसे आगेका) 
प्रवचन - 4

सेवा बड़े ही महत्व की वस्तु है। किन्तु सेवा उसी अंश में कर सकते हैं, जिस अंश में हम सुखी हैं अर्थात् सुखी का साधन सेवा है । इसका अर्थ कोई यह न समझे कि जो सुखी नहीं है, वह साधक नहीं हो सकता । साधक तो वह भी हो सकता है, लेकिन दुखी होनेपर उसका साधन है त्याग और सुखी होनेपर उसका साधन है सेवा ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि सेवा और त्याग के द्वारा हम सुख की दासता और दुःख के भय से मुक्त हो सकते हैं । अब आप विचार करें, बहुत गम्भीरता से विचार करें कि सुख की दासता और दुःख के भय का नाश होना ही क्या सद्गति नहीं है ? क्या स्वाधीनता नहीं है ? क्या मुक्ति नहीं है ? क्या अध्यात्म जीवन नहीं है? अध्यात्म जीवन और क्या है ? आध्यात्मिक जीवन तो वही है न, जिसमें सुख की दासता न हो और दुःख का भय न हो । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 49) ।