Tuesday 13 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 13 March 2012
(चैत्र कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

31.    जगत् की उदारता, प्रभु की कृपालुता और सत्पुरुषों की सद्भावना - ये प्रत्येक साधक के साथ सदैव रहती हैं ।

32.    एकान्त का पूरा लाभ तब होता है जब हमारा सम्बन्ध एक ही से रह जाये । अनेक सम्बन्ध लेकर एकान्त में जाते हैं तो उतना लाभ नहीं होता, जितना होना चाहिए । हमारे सम्बन्ध पहले बदलने चाहिए । एक से रहे, अनेक से नहीं ।

33.    संसार परमात्मा की प्राप्ति में बाधक नहीं है, बल्कि सहायक है । उसका जो हम सम्बन्ध स्वीकार करते हैं वही बाधक है।

34.    परमात्मा कहाँ है, कैसा है, क्या है - इसके पीछे न पड़ते हुए 'परमात्मा' है, यह मान लेना चाहिए । इससे बहुत लाभ होता है ।

35.    अपनी भूल को जान लेने से भी बड़ा लाभ होता है । क्योंकि भूल को जानने से वेदना होती है और वेदना से भूल नाश होती है और भूल रहित होने से अपना हित होता है ।

36.    मौन का अर्थ खाली चुप होना नहीं है, बल्कि न सोचना भी है, न देखना भी है अपनी ओर से । मुझे जो चाहिए सो तो मुझमें है, फिर इंद्रियों की क्या अपेक्षा ?

37.    मौन के पीछे एक दर्शन है कि हमको जो चाहिए वह अपने में है, अपना है और अभी है । यही सर्वश्रेष्ठ परमात्मवाद है ।

38.    भगवान की महिमा का कोई वारापार नहीं है । पसन्द भर करना हमारा काम है; बाकी तो भगवान की अहैतुकी कृपा सारा काम स्वतः कर देती है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 17-19) [For details, please read the book]