Sunday 11 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 11 December 2011
(पौष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, रविवार)

प्रवचन - 1

    मेरे निजस्वरूप उपस्थित महानुभाव तथा भाई और बहन !

       माँग (स्वाधीन होना या दुःखों की आत्यन्तिक निवृति होना) की पूर्ति संसार की सहायता से नहीं हो सकती । इसलिए हमें माँग की पूर्ति के लिए किसी परिस्थिति, किसी अवस्था, किसी वस्तु-व्यक्ति का किसी देश-काल का, आवाहन नहीं करना है ।

        अगर यह बात आपको पसन्द आ जाय कि माँग की पूर्ति के लिए संसार की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है, तो माँग की पूर्ति के लिए संसार की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है । क्यों ? क्योंकि संसार हमें जो सहायता देता है, उससे हमारी माँग की पूर्ति नहीं हो सकती ।

        फिर हमारा और संसार का सम्बन्ध क्या है ? केवल यह सम्बन्ध है, कि संसार की धरोहर के रूप में जो हमारे पास शरीर है, वस्तु है - यह संसार की धरोहर है  - यह हमें आपको संसार से मिली है। संसार की जो धरोहर हमारे पास है, उसे हम विधिवत्, हर्षपूर्वक, पवित्र भाव से संसार की सेवा में लगा दें । अर्थात् हमारा और संसार का सम्बन्ध सेवा का सम्बन्ध है । हमारा और संसार का और कोई सम्बन्ध नहीं है ।

        सेवा का अर्थ क्या है ? सेवा का अर्थ है मन, वाणी, कर्म से बुराई-रहित होना । सेवा का अर्थ क्या है ? यथाशक्ति परिस्थिति के अनुसार भलाई करना । लेकिन वह कब ? जब की हुई भलाई का फल और मान न माँगें तब । बुराई-रहित होकर भलाई का फल न माँगें न चाहें - यह संसार की सबसे बड़ी सेवा है ।   

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 09-10)