Saturday 3 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 03 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

        दोष-जनित सुख दोषों को बनाये रखने पर भी सुरक्षित नहीं रहता, अर्थात् कोई भी प्राणी सदैव दोषी होकर भी सुख का भोग नहीं कर सकता है । आया हुआ सुख चला जाता है और उसका भोगी बेचारा दोषी बनकर ही रह जाता है। यद्यपि अपने को सदा के लिए सर्वांश में दोषी बनाये रखना किसी को भी अभीष्ट नहीं है, तथापि सुख की दासता से वह अपने में अपराधी-भाव स्वीकार कर, निर्दोषता से निराश हो जाता है । इस कारण सुख-भोग का साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

        सुख का आना और जाना तभी उपयोगी तथा हितकर सिद्ध होते हैं, जब मानव सुख का भोगी न होकर, उसकी वास्तविकता का अनुभव कर, आये हुए सुख द्वारा सेवा-परायण हो जाय। सेवा-सामग्री का भोगी हो जाना, मानवता से पशुता की ओर अग्रसर होना है ।

        दुःख का प्रभाव पशुता का अन्त कर सोई हुई मानवता जगाने में समर्थ है । यह तभी सम्भव होगा, जब मानव यह स्वीकार करे कि आया हुआ सुख अपने लिए नहीं है, अपितु दुखियों की धरोहर है । सुख-दुःख-युक्त परिस्थिति में से जब सुखांश सेवा में व्यय हो जाता है, तब मंगलमय विधान से केवल दुःख दुखी को उस जीवन से अभिन्न कर देता है, जो सुख-दुःख से अतीत दिव्य और चिन्मय है, जिसमें जड़ता, पराधीनता तथा अभाव की गन्ध भी नहीं है और जो अकर्तव्य, असाधन एवं आसक्तियों से रहित है ।

        कामना-पूर्ति और अपूर्ति की परिस्थितियों से तादात्म्य स्वीकार करना अपने को सुख की दासता तथा दुःख के भय में आबद्ध करना है । इस कारण कामना-पूर्ति-अपूर्ति में जीवन-बुद्धि स्वीकार करना प्रमाद ही है । प्रमाद के रहते हुए न तो सुख की दासता का नाश होता है और न दुःख के भय का ही अन्त होता है। दुःख का भय दुःख से भी अधिक दुःखद है । दुःख का भय दुखी के जीवन में असावधानी उत्पन्न कर देता है, जो उसके लिए सर्वदा अहितकर है । इस दृष्टि से दुःख से भयभीत होना भारी भूल है । इस भूल का अन्त करना मानव मात्र के लिए अनिवार्य है।

- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 25-26)